Saturday, April 3, 2010

सल्तनपुर का देवदास


 ' भीड़ में धक्के खाकर टिकट लेते हैं, सिनेमाई देवदास के हर अंदाज पर तालियाँ पीटते हैं, अंत मैं जब वो मरता है तो बिलख-बिलख कर रोते हैं, आज यहाँ, मैं जबरीमल का सुपुत्र चुन्नीमल, ग्राम प्रतिष्ठा के झंडाबरदार समस्त व्यक्तियों से मात्र यही एक प्रशन करता हूँ की आखिर अपने गाँव के देवू उर्फ़ देवसिंह की इतनी उपेक्षा क्यों ? यह समय चुप्पी का नहीं है, उत्तर देना का है , बोलिए, उत्तर दीजिये '
सलतनपुर के  पंचायत भवन में एक क्षण को वास्तव में ही मौन विराजमान हो गया, चुन्नीमल को ग्रामीणों  पर हुए इस प्रभाव को देखकर मन ही मन गर्व का अनुभव हुआ | तभी पीछे से एक कड़क आवाज ने वायुमंडल में प्रवेश किया 'मारो साले को, अवारापंती सिखा रहा है छिछोरा '
चुन्नी मल  ने आँख उठा कर आवाज वाली दिशा में देखा| ऐसे मौको पर आवाज हमेशा पीछे की तरफ से ही आती है ओर आवाज लगाने वाला सामान्तया अदृश्य ही रहता है, हाँ उसका प्रभाव अवश्य तुरंत परिलिक्षित हो जाता है, यहाँ भी ऐसा हुआ, जूते, चप्पल, लाठी उठा उठा कर लोग दौड़े चुन्नीमल की तरफ | चुन्नीमल जो अब तक अपने को ग्रामवासियों का नायक मान बैठा था, एकाएक खलनायक में परिवर्तित होते ही, सर पर पाँव रखकर ऐसा भागा की सीधे बस स्टैंड पर जा कर ही सांस ली |
गाँव के लोगों ने उसे वहां ही देखा था आखिरी बार | 

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'सर हेनरी साहब तो जिद किये बैठे है की उनका अगला प्रोजेक्ट आपकी ही कहानी पर होगा, मौका अच्छा है सर , होलीवुड प्रोजेक्ट है, समझ रहे  है न सर '
' देखो,  पिछले तीस बरसों से में लिख रहा हूँ, मैंने इतना  नाम कमा लिया है इन अंग्रेजों की दुनिया मैं, की मुझे किसी, पुरुस्कार की आवस्यकता का अनुभव नहीं होता, हाँ पैसा अच्छा मिलेगा ये बात मेरे लिए मायने रखती है'
' उसकी तो आप चिंता ही ना करे'
'ठीक है फिर, कल कहानी मिल जाएगी तुम्हे'
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चार्ल्स ने स्टोर रूम में पड़ी पुरानी अलमारी से एक मोटी सी  कॉपी निकली, धूल साफ़ की तोह मुख्प्रष्ट पर लिखा शीर्षक ओर लेखक का नाम चमकने लगा ' सलतनपुर का देवदास' लेखक चुन्नीमल.  शीर्षक पर नज़र जाते ही उसे अपने मित्र देवसिंह उर्फ़ देवदास की याद आ गयी , उन दिनों की याद आ गयी जब वोह चार्ल्स नहीं चुन्नी हुआ करता था, ओर देव ,उसके जैसा भावुक और हृदय का नेक व्यक्ति तो उसने आज तक नहीं देखा था, उसकी प्रथम कहानी की प्रेरणा, कितना सीधा कितना सरल, देव सिंह देव सिंह ही रहता, कभी देवदास न बनता अगर उसे पारो ( लड़की अब शादी शुदा है इसलिए उसकी बदनामी के भय से एवं कहानी को देवदास जैसा स्वरूप देने के लिए परावर्तित  नाम) न मिली होती, खैर होनी को कौन टाल  सकता है  , तभी तो शहर  में रहकर पढाई कर रहा देव परीक्षा में फेल हो गया ओर उसका मन ऐसा उचटा की बोरिया-बिस्तर बाँध के सीधा गाँव आ गया, घर पर माँ थाली सजाये बेटे के स्वागत को खड़ी थी, पर हाय री किस्मत, देव का तांगे  वाले से किराये को लेकर झगडा हो गया, उस झगडे से उसका मन इतना व्यथित हुआ की वो समान पुताई वाले बराबर के घर मैं घुस गया, मामला ये था की देव के आने की ख़ुशी में उसके पिताजी ने कली लाकर घर पोत दिया था, ओर उत्साहित पारो बची हुई कली अपने घर ले आई ओर बहार की दीवारों पर दे मारी, बस यही गच्चा खा गए देव बाबू , अन्दर घुसे चले गए, सामने देखा तो पारो खड़ी थी, बस देखते ही रह गए | ये पहला वाकया था जब देव के हृदय में प्रेम का स्फुटन हुआ था, ओर उनकी माँ के हृदय में क्रोध का, जिसे उन्होंने उसी शाम को पारो की माँ पर गालिया बरसा कर  पूरा भी कर लिया |
देव ने ये बात सभी से छुपायी हुई थी की वो परीक्षा मैं फेल हो गया ओर अब गाँव में ही रहकर गन्ने की खेती में पिताजी का हाथ बटाएगा, बहुत अवसर आये कहने के पर वो झिझक जाता था, माँ के स्नेह को देखकर, पारो के प्रेम को देखकर | 
पारो ओर वो रोज़ शाम को नुक्कड़ वाले बनिए की दुकान पर लस्सी पीने जाया करते थे, पारो को शक्कर अधिक पसंद थी ओर देव को कम, फिर भी वोह एक ही ग्लास लेते थे , अधिक शक्कर वाला, पहले आधा पारो पीती थी, फिर बचा हुआ देव | 
कहते है अच्छी बात जितनी देर में सामने आती है, बुरी बात उतनी ही जल्दी, हुआ यूँ की देव का सह्पाटी वीरसिंह गाँव आया किसी काम से तो गाँव में देव की पोल खोल गया, अब सब कुछ साफ़ हो ही गया तो  देव ने  भी अपनी बात रख दी सबके सामने , की वो यही खेती करेगा अब|  फैसले से सबसे अधिक आहत कोई हुआ तो  वो  थी पारो, उसने तो  शहर घुमने  के सपने सजा रखे थे | देव की माँ को तो खैर यही अरमान रह गया  की बदली पारिस्थियों  में पारो ही उसके बेटे से व्याह कर ले , परन्तु वो जीवन ही क्या जो आशा के अनुरूप चले, पारो के लिए इस बीच शहर से एक बहुत अच्छा रिश्ता आ गया, पारो के स्वपन फिर जीवित हो गए, उसने  झट रिश्ते को हाँ कह दिया | 
उडती उडती खबर देव को मिली  तो वो अवाक् रह गया | आखिरी बार पारो उसी लस्सी की दुकान पर देव से मिलने आई थी | उसने लस्सी का गिलास भी पूरा गटागट चदा लिया देव ने जब प्रशन भरी निगाह उसपर डाली तो पारो ने उत्तर दिया " मुझे भूल जाना देव, ओर आइन्दा लस्सी मत पीना कभी, ओर ज्यादा मीठे की तो  कभी नहीं, जानते हो ना तुम्हारे खानदान में सबको मधुमेह है'
' काश मेरे जीवन में भी चीनी की अतिरेकता होती, खुश रहना पारो' 
पारो चली गयी, बिना पीछे मुड़ कर देखे, देव के पास उसकी यादों के अतिरिक्त यदि कुछ रह गया था तो  उसकी लस्सी का झूठा गिलास |
पारो की शादी के दिन देव ने खूब लस्सी पी, उसी ग्लास में, चुन्नी मल तभी उसे मिला था , लस्सी की दूकान पर, पुरानी दोस्ती निकाल कर चुन्नीमल ने अपनी लस्सी के पैसे भी देव के खाते में ही जुड़वा लिए थे | 
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लस्सी वाले का  देव पर  उधार निरंतर बढ़ता जा रहा था, एक दिन उसके द्वार देव के लिए बंद हो गए, ऐसे में चुन्नी मल ही था जिसने देव को सहारा दिया, पड़ोस के गाँव की लस्सी वाली चंद्रवती के यहाँ उसका उधार खाता खुलवा कर , देव अब घर पर भी नहीं जाता था, चंद्रवती की दुकान पर ही लस्सी पीता रहता था, उसकी ग्लास में जिसमे कभी पारो ने लस्सी पी थी | इसकी परनिति वही  हुई जिसका भय था , देव को मधुमेह हो गया , ओर इतना गंभीर की दिन पे दिन उसकी हालत बिगड़ने लगी, ओर एक दिन आया के चंद्रवती ने देव को लस्सी देने से इनकार कर दिया ,  देव ने क्रोध में आकर वो  ग्लास तोड़ दिया जो पारो की आखिरी निशानी थी, उस रात देव , चुन्नीमल की गोद में मुह  रख कर फूट-फूट कर रोया | 

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देव की हालत निरंतर बिगड़ने लगी थी , वो  अपने आखिरी वक़्त में पारो की एक झलक देखना चाहता था , उसने पारो के शहर  के लिए तांगा पकड़ा, उतारते हुए तांगे  वाले ने पैसे मांगे, देव  ठहरा  खाली  हाथ, बस मुक्का लात  से तांगे  वाले ने अपने मन की भड़ास निकल ली, देव की सांसें अब मद्धम हो चली थी, मोड़ पर लस्सी वाले की दुकान पर वो रुक गया, खूब चीनी डलवा कर लस्सी  पी, पारो-पारो बुदबुदा रहा था, किसी ने जाकर पारो को खबर कर दी ,"कोई परदेशी आया है, आपका नाम ले रहा है, मरणासन्न  हालत में हैं" पारो घर से निकल पड़ी, इधर देव ने पारो का नाम लेते हुए आखिरी हिचकी ली और धरती पर निढाल हो गिर गया, पुलिस आई मौके पर, पंचनामा भरा, पारो भी आई , दरोगा ने प्रशन किया "जानती है आप कौन है ये"
"नहीं, पहले कभी नहीं देखा"
 लाश को लावारिस  दर्शा कर उसकी अंतिम क्रिया कर दी गयी  |
गाँव में खबर गयी  तो  देव के माँ, पिताजी को  छोड़  कर सभी ने ऐसी चैन की सांस ली मानो गाँव का कलंक मिट गया हो , हाँ चुन्नीमल की आखें जरुर डबडबा गयी ओर उसने उसी दिन प्रण लिया  की वो 
अपने लेखक होने का हुनर , देव सिंह की कहानी दुनिया के सामने लाने में करेगा |

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मुंबई आने के बाद 'सल्तनपुर का देवदास'  कहानी  को प्रकाशित करने के लिए चुन्नीमल कई जगह गया, पर हर जगह लोगो ने उसका उपहास उड़ाया, लस्सी वाले वृतांत का तो  ख़ास तौर से, उन्हें ये देवदास जैसे महान उपन्यास की भोंडी नक़ल लगी, चुन्नीमल ने इसके बाद दो उपन्यास ओर लिखे "सपेरा" ओर "ठठेरा" पर उसे निरंतर धक्के ही मिलते रहे |
 गरीबी आदमी को अक्ल भी दे देती है , ये बात तब सच सिद्ध हुई तब एक युक्ति लगा कर चुन्नीमल रातो रात प्रसिद्ध कहानीकार बन गया, हुआ यूँ की उसने अपना मान बदल लिया,  चुन्नी से चार्ल्स बन गया ओर उसने अपनी आखिर की दोनों कहानियों का अंग्रेजी में अनुवाद करा लिया, जैसे ही उसकी दो नयी किताब " THE SILENT BEEN"  और "PLUMBER OF DREMS" बाजार  मैं उतरी रातों रात उसे धन व प्रसिधी  मिल गयी' 
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कई लाख डोलर में सौदा पक्का हुआ, ' सलतनपुर का देवदास' लेखक चुन्नीमल अब हेनरी के हाथों में थी | सहायक ने कहा था की इसका भी नाम बदल कर अंग्रेजी में कर देते हैं, पर चुन्नीमल ने मना कर दिया , उसे पता था यह भारतीय अंग्रेजों के लिए नहीं थी ये असली अंग्रेजों के लिए थी ओर उन्हें हमेशा गाँव का खांटीपना  पसंद आता है | फिल्म बनी, ओस्कर के लिए नामित हुई, ओस्कर जीता भी , पांचतारा होटल में शानदार पार्टी रखी गयी, होटल में बैठे तमाम फिल्म आलोचक अचंभित थे की जो पुरुस्कार भारत के  बड़े बड़े नगरो ओर लन्दन से पढ़कर आये देवदास , महंगी महंगी विलायती शराब पी कर ना पा सके वो पुरुस्कार सल्तनपुर के इस दो टके के देवदास ने पड़ोस के नगर  से आकर, महज लस्सी पी कर कैसे जीत लिया |
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10 comments:

  1. बहुत खूब...
    हाहाहाहा...मस्त!

    आलोक साहिल

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  2. अच्छी रचना। बधाई। ब्लॉगजगत में स्वागत।

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  3. sunder rachna..........badhai ho.swagat hai.....

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  4. बहुत ठीक है अच्छी लिखा है

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  5. yaar i m impressed wid ur profile, b my friend vll u?

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  6. उस रोज जब हमें मालूम हुआ कि अपने अरविंद बाबू के अन्दर कुछ अविजित संवेदनाएं शब्दातिरेक में आकर कहानी बन जाती हैं तो हमें लगा कि एक कहानीकार पनप रहा है और अब जब उनका देवदास लस्सी की मिठास, पारो के उपहास और फलतह खुद के उदास होने से जूझता दिखा है तो एक बार फिर कहानीकार का दूसरा प्रकार देखने को मिला है। खूबसूरत रचना।

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  7. पंडित जी आप छा गए..खूब लस्सी बेची यार...बेहद सुंदर रचना

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  8. बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा उठाये गए अनेक ज्वलंत मुद्दों पर टिपण्णी करने के साथ ही साथ हम जैसे आवारा का उत्साहवर्धन करने के लिए हार्दिक आभार ...

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  9. pandit ji aapane to devdas ka post mardam kar diya.....bahut bahut saadhuvaad..........anoop aakash verma......

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